धरती
का स्वर्ग कहे
जानेवाले कश्मीर में आज
चारों तरफ बारूद
की गंध, पैलेट
गन से घायल
हुए लोगों की
चीखें, अंतर्मन को झकझोरती
नारे व फौजी
बूटों की छाप
फैली हुई है।
1954 से लेकर आजतक
ऐसा अनगिनत बार
हुआ है कि
भारतीय राज्य के दमन
की मुखालफत करने
के लिए कश्मीर
की आम जनता
सड़कों पर उतरती
रही है। लेकिन
इन्हें कभी सेना
के दमन के
बूते, कभी सड़कों
पर थकाकर तो
कभी कूटनीति के
जरिए जनता के
उभार को शान्त
करने की कोशिश
की जाती रही
है। लेकिन इन
सबके बावजूद भी
कश्मीर की समस्या
का समाधान नहीं
हो सका है
और यह एक
नासूर बनती जा
रही है। आखिर
कश्मीर की समस्या
क्या है? क्या
कारण है कि
कुछ वर्षों के
अंतराल पर कश्मीर
की जनता सड़कों
पर उतर रही
है?
मौजूदा कश्मीरी
आंदोलन
के
कारण
कश्मीर
में मौजूदा आंदोलन
की शुरूआत 8 जुलाई
को हिजबुल मुजाहिदीन
के कमांडर 22 वर्षीय
बुरहान वानी की
भारतीय सुरक्षा बलों के
द्वारा की गई
हत्या के बाद
शुरू हुई। बुरहान
वानी के बारे
में कहा जा
रहा है कि
वह मात्र 15 वर्ष
की उम्र में
ही हिजबुल मुजाहिदीन
में तब शामिल
हुआ था, जब
उसके भाई की
हत्या पीट-पीटकर
भारतीय सुरक्षा बलों ने
कर दी थी।
पिछले साल उसके
और एक भाई
की हत्या भारतीय
सुरक्षा बलों द्वारा
तब कर दी
गई, जब वह
बुरहान से मिलने
जा रहा था।
उसके पिता एक
प्रिंसिपल थे।
बुरहान
वानी की हत्या
का मिशन भारतीय
आर्मी और इंटेलीजेंस
ने मिलकर बनाया
था। आर्मी और
इंटेलीजेंस ने एक
प्लान के तहत
बुरहान को उसके
गर्लफ्रेंड के जरिए
कोकरनाग के पास
बमडूरा गांव के
मंजूर अहमद के
घर में बुलवाया
था। जब वह
मंजूर अहमद के
घर ईद का
मुबारकबाद देने अपने
दो दोस्तों के
साथ गया तो
उस समय वह
सभी निहत्था था।
वहां उनलोगों के
पहुंचने की सूचना
जैसे ही आर्मी
को मिली, फौरन
आर्मी और एसओजी
ने कोकरनागा इलाके
में डबल लेयर
का घेरा डाल
लिया। भारतीय सेना
बुरहान के खात्मे
का ये सुनहरा
मौका चुकना नहीं
चाहती थी, इसलिए
सीधा फायरिंग करने
के बजाय जिस
घर में बुरहान
था, वहां पीछे
से आग लगाई
गई। इस्लाम के
मुताबिक, आग में
जलकर मरने से
दोजख (नर्क) में
जाते हैं। यही
वजह थी कि
आग लगते ही
बुरहान और उसके
साथी बाहर भागे।
बुरहान उस वक्त
नशे में था,
उससे भागते भी
नहीं बन रहा
था। उसके
साथी परवेज और
सरताज ही उसका
हाथ पकड़े हुए
था। मौका देखकर
भारतीय सेना ने
उसे घेर लिया।
बुरहान कुछ कहता
या करता, इससे
पहले ही महज
चार फीट की
दूरी से उसे
गोलियां मार दी
गई। बांकी के
उसके दो साथियों
को जिंदा पकड़ने
का प्लान था,
लेकिन उनदोनों की
तरफ से हरकत
होता देख भादतीय
सेना ने उनपर
भी ताबड़तोड़ गोलियां
बरसा दी। तीनों
को मारने के
बाद जब उनलोगों
की तलाशी ली
गई तो बुरहान
के पास एक
पिस्टल मिला। कहा जाता
है कि आमतौर
पर वह बुलेटप्रूफ
जैकेट और काॅम्बैट
ड्रेस पहनता था।
फिर चाहे वह
अपने ठिकाने पर
बैठकर सोशल मीडिया
पर वीडियो ही
क्यों ना पोस्ट
कर रहा हो।
लेकिन उस दिन
वह सिविल ड्रेस
में था।
बुरहान
की हत्या की
खबर सुनते ही
पूरे घाटी क्षेत्र
में हाहाकार मच
गया क्योंकि वह
कश्मीरी युवाओं में काफी
लोकप्रिय था। वह
सोशल मीडिया पर
भी काफी सक्रिय
रहता था। इस
हत्या के खिलाफ
संभावित प्रदर्शनों व बुरहान
के जनाजे में
उमड़ने वाली भीड़
की आशंका को
देखते हुए पूरे
घाटी क्षेत्र में
कर्फ्यू लगा दिया
गया। जम्मू-कश्मीर
के पूर्व मुख्यमंत्री
उमर अब्दुल्ला ने
कहा कि अब
घाटी क्षेत्र की
फिर से अशांत
होने की संभावना
है और बुरहान
कब्र से ज्यादा
खतरनाक साबित होगा। उनकी
बात सच साबित
हुई।
बुरहान
वानी के जनाजे
के दिन से
शुरू हुए कश्मीर
के सड़कों पर
जनसैलाब लगातार बढ़ता ही
जा रहा है।
उसकी हत्या के
15 दिन गुजरने के बाद
भी प्रदर्शनों का
दौर कम नहीं
हुआ है। कश्मीर
की आजादी का
नारा पूरे घाटी
क्षेत्र में बुलंदी
से लगाया जा
रहा है। कश्मीरी
जनता भारतीस सेना
के कर्फ्यू को
धता बताते हुएबड़ी
संख्या में सड़क
पर उतरकर जोरदार
नारों व पत्थरों
से भारतीस सेना
को कड़ी टक्कर
दे रहे हैं।
अब तक लगभग
50 आम कश्मीरी प्रदर्शनों
में भारतीय सेना
के गोलियों के
शिकार हो चुके
हैं, लगभग 4000 घायल
हैं, पैलेट गन
के छर्रों से
लगभग 200 कश्मीरी युवा अपनी
आंखें गंवा चुके
हैं। प्राइवेट टेलिकाॅम
आॅपरेटर्स की सेवाएं
बंद है, इन्टरनैट
की सुविधाएं भी
बंद है, 17 जुलाई
से समाचारपत्र की
छपाई भी बंद
करवा दी गई।
कश्मीरी आंदोलन को दबाने
के इतने सारे
दमनात्मक कार्रवाई के बाद
भी आंदोलन दबने
का नाम क्यों
नहीं ले रहा
है? क्यों आंदोलन
में बड़ी संख्या
में स्कूली बच्चों
से लेकर अधेड़
स्त्री-पुरूष, जवान लड़के-लड़कियां शामिल हो
रहे हैं? क्या
ये सभी प्रदर्शनकारी
आतंकवादी है? ये
कुछ ऐसे सवाल
हैं, जिनके जवाब
के लिए हमें
इतिहास में थोड़ा
झांकना होगा।
कश्मीर समस्या
का
इतिहास
कश्मीर
का भारत में
विलय किसी सामान्य
स्थिति में नहीं
हुआ था। अंग्रेजों
की साजिश, नेहरू
के अड़ियल रूख
और जिन्ना द्वारा
सांप्रदायिक अवस्थिति अपनाए जाने
के कारण भारत
का विभाजन सांप्रदायिक
आधार पर किया
गया था। कश्मीर
एक मुसलमान बहुल
राज्य था लेकिन
वहां का शासन
एक हिन्दू राजा
के हाथ में
था। कश्मीर की
जनता में जिस
नेता की उस
समय ज्यादा पकड़
थी, वह थे
शेख अब्दुल्ला। शेख
अब्दुल्ला सांप्रदायिक आधार पर
पाकिस्तान में शामिल
होने को लेकर
सशंकित थे और
एक इस्लामी सिद्धांतों
पर बने राज्य
में शामिल नहीं
होना चाहते थे।
आजादी के तुरंत
बाद पाकिस्तान द्वारा
समर्थित कबायली हमले से
शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान
में शामिल होने
के विचार के
स्पष्ट रूप् से
विरोधी हो गये।
लेकिन भारतीय संघ
में शामिल होने
को लेकर भी
उनकी अपनी शंकाएं
थी। काफी चिन्तन-मनन और
राजनीतिक उथल-पुथल
के बाद कश्मीर
ने सशर्त भारतीय
संघ में होना
स्वीकार किया। कश्मीर इस
शर्त पर भारतीय
संघ में शामिल
हुआ कि विदेशी
मसलों, सुरक्षा और मुद्रा
चलन के अतिरिक्त
भारतीय राज्य कश्मीर की
स्वायत्तता बरकरार रखेगा और
अन्य सभी मसलों
पर निर्णय लेने
की शक्ति कश्मीर
के सरकार के
हाथ में होगी।
इसके लिए भारतीय
संविधान में विशेष
धारा 370 को शामिल
किया गया। इस
तरह से भारतीय
संविधान के दायरे
के भीतर कश्मीर
को एक स्वायत्त
राज्य के रूप
में शामिल किया
गया। लेकिन नेहरू
को संघीयता का
यह ढ़ांचा स्वीकार्य
नहीं था। कश्मीर
के शामिल होने
पर कश्मीरी जनता
से जनमत संग्रह
का भी वादा
किया गया था,
जिसे कभी निभाया
नहीं गया। 1953 में
नेहरू ने शेख
अब्दुल्ला की चुनी
हुई सरकार को
बरखास्त कर दिया
और शेख अब्दुल्ला
को गिरफ्तार कर
लिया गया और
कश्मीर में राष्ट्रपति
शासन लागू कर
दिया गया। धीरे-धीरे शेख
अब्दुल्ला भी कश्मीर
में जनमत संग्रह
और उसकी स्वायत्तता
के मसले को
लेकर काफी हद
तक समझौतापरस्त हो
चुके थे। 1970 का
दशक आते-आते
धारा 370 का कोई
अर्थ नहीं रह
गया था। ऐसे
में भारतीय राज्य
द्वारा उसके साथ
ऐसे व्यवहार को
कश्मीरी जनता ने
एक धोखा के
रूप में लिया।
यही कारण है
कि आज हरेक
राजनीतिक पार्टी या गुट
जो कश्मीरी अवाम
का हमदर्द होने
का दिखावा करती
है, वो 1953 तक
की स्थिति को
बहाल करने की
मांग कर रहे
हैं क्योंकि इतनी
मांग किये बगैर
वे कश्मीरी जनता
में अपना हर
किस्म का आधार
खो बैठेंगे।
भारतीय
सत्ता द्वारा किये
गए इस ऐतिहासिक
विश्वासघात के कारण
कश्मीरी जनता में
अलगाव की भावना
को और अधिक
बढ़ाया। जनमत संग्रह
और स्वायत्तता की
मांग को लेकर
अलग-अलग समय
पर अलग-अलग
संगठनों ने कश्मीरी
जनता के बीच
काम किया और
उन्हें संगठित किया। सशस्त्र
बल विशेषाधिकार अधिनियम
लागू होने के
बाद कश्मीर में
एक सैन्य शासन
जैसी स्थिति बन
गई। इस पूरे
दौर में पाकिस्तान
द्वारा कश्मीर में आतंकवाद
को बढ़ावा देने
और धार्मिक कट्टरपंथी
के बढ़ने की
प्रक्रिया जारी रही।
1980 के दशक में
कश्मीर में आतंकवाद
एक बड़ी समस्या
के रूप् में
अस्तित्व में आयी।
इस दशक का
उत्तरार्द्ध आतंकवाद की भयंकरता
का उत्कर्ष था।
1989 से 1991-92 के बीच
ही हजारों कश्मररियों
ने आतंकवाद और
भारतीय राज्य की टक्कर
की कीमत अपनी
जान देकर चुकायी।
धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद का
कश्मीरी जनता के
एक हिस्से में
आधार भी तैयार
हुआ। भारतीय सेना
द्वारा अकल्पनीय दमन, हत्या,
बलात्कार और अपहरण
की प्रतिक्रिया में
कश्मीरी घरों के
नौजवान आतंकवाद के रास्ते
पर जाने लगे।
निश्चित रूप से
इसमें सहायक योगदान
पाकिस्तान द्वारा आतंकवादी और
धार्मिक कट्टरपंथी गतिविधियों को
बढ़ावा देना भी
था।
कश्मीर समस्या
के
समाधान
का
रास्ता
स्पष्ट
है कि इस
बार कश्मीर का
उभार एक जनविद्रोह
का रूप लेकर
सामने आया है।
भारतीय सैन्य दमन भी
इसे हरा नहीं
सकता है। भले
सैन्य दमन इसे
कुछ समय के
लिए ठंडा कर
सकता है। आज
कश्मीर में लगभग
7 लाख भारतीय सैन्य
ताकत मौजूद है।
यहां खुफिया एजेंसी
इस तरह काम
करती है, मानो
वे किसी दुश्मन
देश के भीतर
काम कर रही
हों, सड़कों पर
घूमने भर से
आतंकित कर देने
वाली सैन्य उपस्थिति
को आप देख
सकते हैं।कहीं पर
सेना के शासन
के बारे में
सुनने और उसके
तहत रहने में
जमीन-आसमान का
अंतर है। सेना
की इस गैर
जरूरी उपस्थिति को
कश्मीर की जनता
भारत द्वारा कब्जा
मानती है। यही
करण है कि
आज जो कश्मीर
में आंदोलन चल
रहा है, उसके
निशाने पर ह
रवह चीज है
जो भारत की
उपस्थिति का प्रतीक
है। चाहे वह
स्कूल हो, सरकारी
आॅफिस हो या
कोई और सरकारी
इमारत।
आज
कश्मीर समस्या के समाधान
पर तमाम राजनीतिक
पार्टियां कुछ ना
कुछ सुझाव दे
रही है और
इस समस्या के
लिय एक दूसरे
पर आरोप भी
लगा रही है।
पाकिस्तान भी इस
मौके को चूकना
नहीं चाहती है
और वह भी
अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से कश्मीर
समस्या पर हस्तक्षेप
करने की मांग
कर रहा है।
यहां तक कि
इस बार कश्मीर
में चल रहे
आंदोलन के समर्थन
में व भारतीय
सेना द्वारा की
जा रही कार्रवाई
के विरोध में
19 जुलाई को काला
दिवस मनाने की
घोषणा भी की
गई। वहीं दूसरी
तरफ भारत में
हिन्दूवादी ताकतें 19 जुलाई को
कहीं शौर्य दिवस
तो कहीं विजय
दिवस आयोजित किए।
संसद के मानसून
सत्र में भी
कश्मीर समस्या पर सैन्य
सख्ती पर लगभग
राजनीतिक दलों की
एकजुटता सामने आई। यह
सवाल काफी सोचनीय
है कि क्या
सैन्य सख्ती से
कश्मीर समस्या का समाधान
हो जायेगा? क्या
भारतीय सैनिक अपने ही
लोगों के खून
से अपने हाथ
रंगते रहेंगे? क्या
कश्मीर में सैन्य
विशेषाधिकार कानून को नहीं
हटाना चाहिए? क्या
कश्मीरी जनता को
आत्मनिर्णय का अधिकार
नहीं मिलना चाहिए?
इन सवालों के
जवाब ही कश्मीर
समस्या के समाधान
का रास्ता तलाशेगा।